बुधवार, 15 फ़रवरी 2023

गया डायरी-2

  6 फरवरी 2023- गया से लौटकर 

श्री शैवाल उन कथाकारों में से है जिन्होंने अपने पात्रों के साथ जीवन जिया है ,उनके साथ समय बिताया है । फणीश्वर नाथ रेणु भी अपने पात्रों के साथ ही जिए । अपनी कहानियों का पात्र बनाया और ये कहानियां कथा जगत का पैमाना साबित हुई। ऐसे कम ही कथाकार है जो अपने सृजन का उत्स जीवन के जटिल संघर्षों से निकालकर सामने लाते है। उन्हें पाठकों के रू-ब-रू खड़ा कर देते हैं कई प्रश्नों के साथ। एक अदना सा पात्र जिसका सामान्य जन-जीवन में कोई नोटिस नहीं लेता उसे इतना व्यापक और मर्मस्पर्शी बना देते हैं कि पाठक कहानीकार का नाम भूल जाए पर पात्र का नाम नहीं भूल पाता। परंतु कभी-कभी ये पात्र कथा जगत से बाहर निकल कर फिल्मों के माध्यम से जनमानस में स्थानी ठिकाना बना कर लोक-कथा का रूप ले लेते हैं।

 कल गया, गया तो शैवाल जी से मिला  5-6 वर्षों बाद मुलाकात हो रही थी। अक्सर उनसे कहानी के पात्र फिल्म और रचनाओं पर बात होती है । आज भी उन्होंने कई कथा पात्रों के बारे में बताया जिसमें एक जेहल था जो उनकी कहानी का नायक है .


  एक बार जब वे अपने कार्यक्षेत्र में अकेले रह रहे थे तो जेहल ने उनसे पूछा था कि

 "तोरो औरतिया छोड़ के चल गलो हे का?"

 बिखरे दांपत्य जीवन के समग्र बिरह की पीड़ा इस एक वाक्य से ही व्यंजित हो गई। आगे उन्होंने बताया कि जब एक बार उसने सुना कि उसकी पत्नी बगल के गांव में चादर चढ़ाने आई है तो बरसात में भरी नदी को पार करने के लिए उसने कूद गया। हम प्रेम के वर्गीय चरित्र पर बात कर रहे थे । कहानी धर्म युग में छपी थी।

 दूसरा वाकय इससे ज्यादा हृदयस्पर्शी है। 1981 में श्री शैवाल अतरी (गया) में जनगणना के कार्य में लगे थे। उन्हें एक व्यक्ति मिला जो उनकी कहानी का पात्र बना । प्रचंड गर्मी में ताड़ के पेड़ के पास खगड़े (तार के सूखे पत्ते ) की झोपड़ी में वह रहता था । कहानी लिखकर छपने के लिए भेजी गई। धर्मयुग के संपादक धर्मवीर भारती ने कुछ सत्य घटनाओं की स्वीकार्यता पर संदेह व्यक्त करते हुए कथाकार से उस अंश को हटा देने का अनुरोध किया । 'आदिम राग ' कहानी संपादित कर धर्मयुग में छपी।


     फिर दशकों बाद केतन मेहता श्री शैवाल से मिलने गया आये वो और उनकी पत्नी दीपा मेहता इसी बरामदे में बैठी थी जहां मैं आज बैठा हूं। बिजली नहीं थी , गया के प्रचंड गर्मी में ताड़ के सूखे पत्ते के बने हाथ-पंखे से सभी हवा झल रहे थे। कहानी के उसी अंश पर बात हो रही थी जिसे धर्मवीर भारती ने हटा दिया था। केतन मेहता उस पर फिल्म बनाना चाह रहे थे। उनके अनुरोध पर श्री शैवाल दशरथ मांझी पर बनने वाली फिल्म के स्क्रिप्ट कंसलटेंट बने। वह डायलॉग जो इस फिल्म का पंचलाइन बना 


"भगवान के भरोसे मत बैठो क्या पता भगवान हमारे भरोसे बैठा हो।" शैवाल जी की ही देन है।

   फिर बात 'मृत्युदंड' तक पहुँची। प्रकाश झा एनo एफo डीo सीo से अनुदानित एक फिल्म बनाना चाह रहे थे। इसके लिए जरूरी था कि समय से फिल्म की कहानी एनoएफoडीoसीo में जमा कर दी जाए । कहानी इतनी सशक्त हो की अस्वीकृत ना होने पाए। तब उन्होंने शैवाल जी को मुंबई बुलाया जल्द से जल्द अच्छी कहानी लिखने का अनुरोध किया। यदि कहानी एक-दो दिन में एनoएफoडीoसीo में जमा नहीं होती तो प्रकाश झा को अनुदान नहीं मिल पाता। होटल के कमरे में कहानी लिखना प्रारंभ किया प्रकाश झा वहां से निगरानी करने लगे थे कि कहानी लिखने में कोई व्यवधान न हो । यहां तक की होटल वाले को भी हिदायत दे रखी थी कि खाना दरवाजे के नीचे से सरका कर दे दिया जाए। 18 घंटे में कहानी लिख दी गई। ससमय इसे एनoएफoडीoसीo में जमा कर दिया गया। इस कहानी पर एक छोटे बजट की फिल्म बनाने की योजना थी। कुछ दिनों बाद बॉलीवुड के बौद्धिक जगत में इस कहानी की चर्चा होने लगी। कहानी माधुरी दीक्षित तक पहुंची। कहानी पसंद आई। उन्होंने इस कहानी पर बनने वाली फिल्म में काम करने की इच्छा व्यक्त की। तब कई लोग आगे आए और एक बड़े बजट की सफल फिल्म बनी जिसमें शबाना आजमी, ओम पुरी, माधुरी दीक्षित, शिल्पा शिरोडकर हार मोहन आगाशे जैसे कलाकारों ने काम किया। यह फिल्म 1997 में सिनेमाघरों में प्रदर्शित हुई।


माधुरी दीक्षित ने इस फिल्म में कार्य के अनुभव को साझा करते हुए एक साक्षात्कार में कहा था कि मैंने अपने जीवन में मृत्युदंड की पात्र 'केतकी ' से बेहतर चरित्र का अभिनय नहीं किया है।

 तीन बजने वाले थे और मुझे पटना लौटना था। गया की व्यस्त सड़कों से गुजरता हुआ मैं टावर चौक पहुंचा।  गणिनाथ भारती के प्रसिद्ध ईमरती दुकान से ही ईमरती ले एनoएचo 82 के निर्माणाधीन धूल'धूसरित सड़कों पर पटना की ओर बढ़ गया।






 


शनिवार, 11 फ़रवरी 2023

गया डायरी-1( गयाशिर्ष स्तूप)

06 फरवरी 2023

रविवार का दिन पटना से बाहर की मेरी यात्राओं के लिए अनुकूल होता है. आज सुबह 7:00 बजे मैं अपने पुत्र प्रणय के साथ गया की ओर निकल पड़ा.


 


सुबह के कारण सड़क पर कम भीड़ थी परंतु पटना से महुली तक निर्माणाधीन फ्लाईओवर के कारण सड़क संकरी और धूल भरी थी इसे पार कर पुनपुन की ओर मुड़ा तो पुनपुन नदी के पुल से गुजरते हुए फिर निर्माणाधीन एनएच 82 पर चल पड़ा पुनपुन नदी के बाद सड़क संकरी हुआ करती थी जिसका अस्तित्व नहीं दिख रहा था नए सड़क ने इसे विलीन कर दिया था. इसके बाद लगातार हम निर्माणाधीन NH 82 और पुराने सड़क पर चढ़ते-उतरते 9:30 बजे गया शहर में प्रवेश कर गये . 

        हमें  गयासिस पर्वत (ब्राह्मयोनि) जाना थाआज माघ पूर्णिमा (6 फरवरी 2033) को यहां गयाशिर्ष स्तूप को प्राण-प्रतिष्ठित किया जाना था.वियतनाम की बौद्ध भिक्षुणी वेन बोधितचित्ता एवं दीपक आनंद जी ने बड़ी शिद्दत से मुझे आमंत्रित किया था. दोनों ही संत प्रवृत्ति के हैं. मुझसे पुरानी मित्रता है. स्तूप के निर्माण में इनकी अहम भूमिका है .


विगत 3 वर्षों से इसका निर्माण कार्य चल रहा था . भिक्षुणी बोधितचित्ता सही मायने में एक संत है, सन् 2019 से श्रीलंका के एक गुमनाम पहाड़ पर विपश्यना (तपस्या) मे थी. मैंने एक बार पूछा था तो उन्होंने बताया कि पहाड़ी के आसपास कुछ बौद्ध धर्मावलंबी श्रद्धावश उन्हें भोजन दान कर जाते हैं, जिससे उनकी जीविका चल पाती है. 

 450 फीट की ऊंचाई पर स्तूप का निर्माण करना  कठिन कार्य था पर यह पूरा हुआ. गया टावर चौक से आगे बढ़ने के बाद कई सड़कों में वन वे ट्रैफिक रहने के कारण मेरी गाड़ी को प्रवेश न करने दिया गया. तंग सड़कों से गुजरते हुए गूगल और स्थानीय पूछ-ताछ के बाद विष्णुपद मंदिर के पास पहुंचा. यहां का संकरा रास्ता और रविवार के भीषण भीड़ को झेलता हुआ मैं 10:45 बजे स्तूप के पास पहुंचा.


इस स्थान पर भगवान बुद्ध ने बोधगया से राजगीर जाने के क्रम में अग्नि पूजक जटिल भाइयों, गया और नदी  कश्यप को आदित्य पर्याय सूत्त का उपदेश दिया था. यहां घटित दूसरी महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटना यह है कि जब देवदत्त 500 बौद्ध भिक्षुको के साथ संघ से अलग हो गए थे तो इसी पर्वत पर आकर रुके थे, बिंबिसार ने उनके संघ के लिए भोजन की व्यवस्था की थी .

भगवान बुद्ध के निर्देश पर सारीपुत्र यहां आए थे और संगीतिपर्याय सूत्त का उपदेश दिया था. जिसके बाद संघ का एकीकरण हुआ. इस प्रकार यह स्तूप हमें याद दिलाता रहेगा कि भगवान बुद्ध के जीवन काल में ही संघ में दरार आनी प्रारंभ हो गई थी और इसे रोकने का सफल प्रयोग इसी स्थल पर किया गया था.

  आज सैकड़ों की संख्या में कई देश के बौद्ध भिक्षु भिक्षुणियों ने यहां प्रार्थना की और भगवान बुद्ध के इन सूत्रों का पाठ किया . आज भगवान बुद्ध यहां जीवंत हो उठे.


माता बोधितचित्ता और दीपक आनंद जी अत्यंत सहृदयता से मिले, मुझे और मेरे पुत्र को आशीर्वाद दिया . पुत्री राजतरंगिणी जिसके जन्म के बाद वे बिहार शरीफ अस्पताल में आई थी और अपना नाम उसे दे दिया था 'बोधितचित्ता' .उसका भी हालचाल पूछा कि" लिटिल 'बोधितचित्त' कैसी है" . कार्यक्रम संपन्न होने के बाद इन्होंने मुझे बोधगया चलने का अनुरोध किया परंतु मुझे शैवाल जी से मिलना था इसलिए दोनों से क्षमा मांग कर वहां से गया की ओर निकल गया.

मंगलवार, 25 अक्तूबर 2022

बिहार फिल्म डायरी 1


 प्रख्यात साहित्यकार शैवाल की रचनाओं पर कई फिल्मों का निर्माण हो चुका है जिसमें 'दामुल' 'मृत्युदंड' और 'दास कैपिटल गुलामों की राजधानी' प्रमुख है. शैवाल बिहार के एक छोटे से अंचल घोसी को अपना कथा गुरु मानते हैं. उक्त सभी कहानियों और फिल्मों की पृष्ठभूमि बिहार है. वस्तुतः शैवाल ने ही प्रकाश झा को प्रकाश झा बनाया  'दामुल' प्रकाश झा की पहली फिल्म थी इसकी कहानी इतनी सशक्त है कि इसे राष्ट्रीय स्वर्ण कमल पुरस्कार मिला था, जिसने उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाई . 'मृत्युदंड' फिल्म की शूटिंग के बाद मुख्य नायिका माधुरी दीक्षित ने कहा था कि मैंने अपने जीवन में इस फिल्म की स्त्री चरित्र से बेहतर चरित्र का रोल अदा नहीं किया है. 'दास कैपिटल गुलामों की राजधानी' वर्ष 2020 में रिलीज हुई थी अभी हाल ही में फिल्म 'मट्टो की साइकिल' की समीक्षा लिखते हुए प्रख्यात फिल्म समीक्षक सुभाष केo झा ने इस फिल्म पर कुछ इस तरह की टिप्पणी की है

   "मट्टो की साइकिल ने मुझे दिवंगत छायाकार राजेन कोठारी के निर्देशन में बनी दास कैपिटल गुलामों की राजधानी की बहुत याद दिलाई। जाने-माने हिंदी लेखक शैवाल के लेखन के आधार पर, यह हमें सीधे बिहार के एक दूरदराज के शहर में एक सरकारी कार्यालय में ले जाता है जहां भ्रष्टाचार न केवल जीवन का एक तरीका है बल्कि अस्तित्व का एकमात्र साधन भी है। रिश्वतखोरी, कमीशन और अन्य अंडर-द-टेबल प्रथाओं का महिमामंडन किए बिना मानव अध: पतन का यह विश्वसनीय नाटक हमें मनहूस जीवन के दलदल में डाल देता है, जिनमें से कुछ जैसे यौन शोषित पत्नी (आयशा रजा) की लेखक शैवाल के कथा पात्र से पहचाने जाने योग्य व्यक्ति हैं। नायक पुरुषोत्तम राम को , एक वंचित व्यक्ति, जिसकी बढ़ती वित्तीय देनदारियां हैं, हर सरकारी कर्मचारी ने जीवन के एक तरीके के रूप में भ्रष्टाचार और रिश्वत स्वीकार कर लिया है। यह एक ईश्वरविहीन, मनहूस शहर है यहां जीवन यापन कर रहे गरीबों के लिए एक सतत संघर्ष है,  बीमार पड़ना एक विलासिता है जिसे पात्र बीमार कर सकते हैं। इसे बिहार के लोकेशन पर शूट किया गया, सिनेमैटोग्राफी का कार्य राजेन कोठारी ने नहीं बल्कि चंदन गोस्वामी द्वारा किया गया है, दास कैपिटल एक सामाजिक तालाबंदी में फंसे अपूरणीय पात्रों का एक निरा और अनगढ़ रूप है।

(सुभाष के झा के मूल आलेख का लिंक

 https://www.firstpost.com/entertainment/matto-ki-saikil-the-india-that-we-hardly-get-to-see-in-our-cinema-11241581.html )


सोमवार, 29 नवंबर 2021

नवादा डायरी-2 : गांधी इंटर स्कूल और राजकमल चौधरी


1870 ईस्वी में जब नवादा गया जिला के अनुमंडल प्रशासनिक इकाई का मुख्यालय बना तो यहां अंग्रेजी शिक्षा के लिए नवादा इंग्लिश हाई स्कूल की स्थापना हुई । 22 जून 1911 ईस्वी को इंग्लैंड के राजा जॉर्ज पंचम एवं रानी मेरी का राज्यारोहण हुआ तब इस विद्यालय का नाम जॉर्ज कारनेशन इंग्लिश हाई स्कूल रखा गया ।

इस विद्यालय के 141 वर्षों के इतिहास में कई सफों को अब तक नहीं पढ़ा गया है । आजादी के बाद इस विद्यालय का नाम महात्मा गांधी उच्च विद्यालय रख दिया गया जो अब सामान्यतः गांधी स्कूल के नाम से जाना जाता है । 


भारत जब आजादी की दहलीज पर खड़ा था तब मैथिली हिंदी और बांग्ला के प्रख्यात साहित्यकार राजकमल चौधरी इस विद्यालय से मैट्रिक की परीक्षा में बैठ रहे थे । उन्होंने अपनी पहली रचना  (कविता) यहीं रहते हुए की थी, वे मूलतः सहरसा जिला के माहिषी गांव के थे ।





उनके पिता मधुसूदन चौधरी इस विद्यालय में प्रधानाध्यापक हुआ करते थे । राजकमल चौधरी की मां त्रिवेणी देवी का असामयिक निधन जब हुआ था तो राजकमल चौधरी की उम्र 10-12 वर्ष थी । उनके पिता ने उसके बाद दो शादियां की तीसरी पत्नी राजकमल चौधरी की हमउम्र थी । पिता को पुनर्विवाह के लिए राजकमल चौधरी ने कभी माफ नहीं किया यहां तक कि जब 1967 में उनकी मृत्यु हुई तो मुखाग्नि तक नहीं दिया।

 इस विद्यालय का भवन ऑग्ल-भारतीय शैली के स्थापत्य का नायाब नमूना है।


नवादा जिले में इस शैली के दो ही भवन थे । दूसरा अनुमंडल पदाधिकारी का आवास था , जिसके कारण इस इलाके का नाम 'साहब कोठी' है परंतु दुर्भाग्यवश अनुमंडल पदाधिकारी के नए आवासीय भवन बनाने के लिए पुरानी इमारत को ध्वस्त कर दिया गया ।

मंगलवार, 23 नवंबर 2021

इस्लामपुर डायरी (Islampur Dayari) -4

 पटना के असिस्टेंट सेटलमेंट अफसर जेoएफoडब्ल्यूoजेम्स ने सर्वे के फाइनल रिपोर्ट में लिखा है कि इस्लामपुर का चौधरी परिवार पटना के कुछ महत्वपूर्ण जमींदार यथा मसौढी के राजा जसवंत सिंह अमावा स्टेट और गुजरी परिवारों में से एक था शाहजहांपुर और भीमपुर में भी अपने पूर्वजों की जमीदारी का कुछ हिस्सा वापस पाया था।

      साहित्य अकादमी पुरस्कार विजेता उर्दू साहित्यकार अब्दुस्समद के उपन्यास 'दो गज जमीन ' में भी इस्लामपुर के चौधरी परिवार की कुछ झलक मिलती है।

शुक्रवार, 19 नवंबर 2021

पटना डायरी-6 (पटना काउंसिल का गठन)

1765 में दीवानी अधिकार मिलने के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी क्षेत्रिय राजनीतिक प्राधिकार हो गई । परंतु सशक्त सर्वोच्च प्राधिकार के अभाव में बिहार के दूरस्थ क्षेत्रों में इसका प्रवेश मुश्किल था , राजस्व संग्रहण के लिए इन्हें स्थानीय प्रभावशाली जमींदारों के विरोध और विद्रोह का सामना करना पड़ता था। पटना फैक्ट्री के चीफ को रेवेन्यू कलेक्टर की अतिरिक्त जिम्मेदारी दी गई यह एक व्यापारी के शासक बनने का प्रस्थान बिंदु था। उन्हें सहयोग के लिए दो पुराने दीवान सीताब राय और धीरज नारायण सिंह को दिया गया इन तीनों को मिलाकर पटना काउंसिल बनी जो ईस्ट इंडिया कंपनी और परंपरागत राजस्व संग्रहकर्ता अधिकारियों की बीच की कड़ी थी। पटना काउंसिल आधुनिक प्रशासन में गठित होने वाली सबसे पहली क्षेत्रिय इकाई थी जिसे आज हम पटना कमिश्नरी के रूप में देख सकते हैं।

गुरुवार, 5 नवंबर 2020

पटना पर लिखी एक वाहियात किताब

 

'मैटर ऑफ  रैट्स' पटना पर लिखी एक वाहियात किताब है. लेखक अमिताभ कुमार है जो अमेरिका में रहते है. पुस्तक संस्मरणात्मक लहजे में लिखी गई है, परंतु कोई निरंतरता नहीं है. 'कहीं का ईंट कहीं का रोड़ा भानुमति ने कुनबा जोड़ा'. लेखक का बचपन एवं किशोरावस्था पटना मे बीता है. यह बताना नहीं भूलते की वे अंग्रेजीदा स्कूल मे पढ़ें एक  उच्च अधिकारी के पुत्र है . पाठक पुस्तक पढकर सहज अनुमान लगा सकते है की इनका जमीनी हकीकत से कभी वास्ता नहीं रहा . यदि कोई विदेशी इस पुस्तक को पढ़ ले तो उसे लगेगा कि पटना चूहों का शहर है.


भूमिका में वे लिखते हैं कि पटना का भोग मनुष्य नहीं चूहे करते हैं और दोनों एक साथ जीते हैं.  कभी जलान संग्रहालय कभी अरुण प्रकाश की कहानी कभी बिंदेश्वर पाठक के सुलभ शौचालय में घुमाते हैं; कोई तारतम्यता नहीं है. ऐसा लगता है कि पटना संबंधित बेतरतीब नोट्स को पुस्तक का रूप दे दिया हो. अपने स्कूल की उत्कृष्टता बताते हैं, उसका नाम भी बताना नहीं भूलते. उनके बौद्धिक दिवालियापन का आलम यह है वे चूहों और उसके मारने की कला के संबंध में किसी गांव में जाकर  नहीं पूछते बल्कि बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री से मिलते हैं, और इस संबंध में पूछ-ताछ करते हैं. कुल मिलाकर अमिताभ जी उस जमात में शामिल है जो पहली दुनिया में रहकर अपनी  तीसरी दुनिया की गलत तस्वीर पेश कर सस्ती लोकप्रियता हासिल करना चाहते है. चीजों को वैसे ही परोसते है जैसा उनका आश्रयदाता चाहता है
. 

रविवार, 31 मई 2020

जलालगढ़ डायरी : पूर्णिया का किला (jalalgarh fort of purneya)


   जलालगढ़ किला पूर्णिय से उत्तर 20 किलोमीटर दूर स्थित है. यह राष्ट्रिय उच्च पथ-57 से 1.5  किलोमीटर पूरब की ओर है. जलालगढ़ किले का निर्माण खगड़ा (किशनगंज) के मनसबदार राजा सैयद मोहम्मद जलालुद्दीन ने करवाया था. 

 ये मुगल काल के एक सामंत थे, सीमांत क्षेत्र के मनसबदारी उनके पास थी. मुगल बादशाह जहांगीर ने इन्हें राजा का खिताब दिया था.

मुगल काल से पूर्णिया भारत और  नेपाल के बीच का सीमांत प्रदेश रहा है. जिस कारण इसका सामरिक महत्व है. यह किला लगभग 6 एकड़ में फैला है, और उसके आसपास इसकी 100 एकड़ जमीन है.
वर्तमान में किले की दीवार उसका बुर्ज और प्रवेश द्वार के भग्नावेश शेष बचे है. इसकी ऐतिहासिक महत्ता को देखते हुए बिहार सरकार के पुरातत्व निदेशालय ने संरक्षित स्मारक घोषित किया है.

संभवत इस किले के निर्माण का उद्देश्य नेपाल से सटे सीमावर्ती क्षेत्र में एक सशक्त सैन्य केंद्र स्थापित करने का रहा होगा.
18 वीं शताब्दी से लेकर 19 वीं शताब्दी तक यह एक सशक्त सैन्य केंद्र की अपनी भूमिका का निर्वहण करता रहा. सुरक्षा के साथ-साथ इस मार्ग से होकर आने-जाने वाले यात्रिओं और व्यापारियों को भी निर्भय  आवागमन की सुविधा मुहैया करता रहा.
19 वी सदी के प्रारंभ में पूर्णिया का जिला मुख्यालय, और कोर्ट-कचहरी रामबाग में था जो सौरा और कोसी नदी की धारा के बीच में स्थित था. अस्वास्थ्यकर परिस्थितियों के कारण इसे ईस्ट इंडिया कंपनी ने यहां से स्थानांतरित करने का निर्णय लिया.
सन 1815 ई० में तत्कालीन कलेक्टर ने जिला मुख्यालय को रामबाग से हटाकर जलालगढ़ में स्थानांतरित करने की अनुशंसा की थी परंतु कतिपय कारणों से संभव नहीं हो सका. वर्तमान में किले की लंबाई पूरब से पश्चिम 550 फिटर उत्तर से दक्षिण 410 फीट है. किले की दीवार की ऊंचाई 22 फीट और चौडाई 7 फिट है.

 दीवारों को सुर्खी-चुना से जोड़ा गया है. मुख्य प्रवेश द्वार पूरब की ओर है जिसकी ऊंचाई 9 फुट है. 70 के दशक तक मुख्य प्रवेश द्वार में काठ के भारी चौखट और विशालकाय दरवाजे को देखा जा सकता था. किले के चारों कोनों पर बुर्ज (वाच-टावर) बने है. किले के पूरब कोसी की एक धारा बहती है. यह उन दिनों नदी मार्ग से सीधा मुर्शिदाबाद से जुड़ा था. इस किले के जीर्णोद्धार के लिए श्री नाथो यादव लगातार संघर्षरत है.
यद्यपि पर्यटन के दृष्टिकोण से यहां कुछ विशेष सुविधा उपलब्ध नहीं है, परंतु एन.एच-57 से सटे होने के कारण यहां पहुंचना मुश्किल नहीं है. इतिहास और मध्यकालीन स्थापत्य में रुचि रखने वाले व्यक्तियों को इस किले का भ्रमण एक बार अवश्य करना चाहिए. 


गुरुवार, 21 मई 2020

ए. टी. आई. डायरी ; रांची (A.T.I /SKIPA Dayari ; Ranchi)


11 अप्रैल 2001
        
  अप्रैल की सुहानी सुबह के साथ प्रशिक्षण की एक और नए दिन की शुरुआत हुई.
सुबह कुछ परिक्ष्यमान पदाधिकारी चाय की चुस्कियां के साथ अखबार पढ़ रहे थे,

कुछ लॉन टेनिस तो कुछ योगाभ्यास में लीन थे.

सुबह के नाश्ते के बाद सभी पदाधिकारी गण व्याख्यान कक्ष की ओर प्रस्थान कर गये .
आज प्रथम व्याख्यान श्री ए. एन. सिन्हा महोदय " सुनिश्चित रोजगार योजना" विषय पर था.
इस योजना के लक्ष्य, उद्देश्य कार्य-योजना, संगठन, कार्यान्वयन, पंजीकरण, मजदूरी का भुगतान, निरीक्षण एवं सतर्कता से संबंधित विविध पहलुओं पर प्रकाश डाला गया.

व्याख्यान के दौरान श्री सिन्हा ने प्रसंगवश अपने व्यवहारिक अनुभव के संदर्भों से प्रशिक्षुओं को लाभान्वित किया.
       चाय अंतराल के बाद दूसरा व्याख्यान श्री एके घोष महोदय का था. श्री घोष ने "बिहार वित्त नियमावली" एवं 'कोषागार संहिता' के नियमों की चर्चा करते हुए वित्त पर नियंत्रण के विषय में बताया.
  तीसरा व्याख्या श्री वी. के. सहाय महोदय का था, परंतु किसी कारणवश वे नहीं आ सके.
उनके स्थान पर श्री घोष ने ही व्याख्यान दिया.
    भोजन अवकाश में सभी पदाधिकारी छात्रावास की ओर लौट चलें कड़ी धूप में किस गृष्म ऋतु के आगमन का अहसास हो रहा था.
सबो ने मेस में दोपहर का भोजन ग्रहण किया. रोज की तरह आज भी भोजनावकाश के बाद
प्राय: फोन की घंटी लगातार बजती रही और पदाधिकारी गण अपने इष्ट मित्रों संबंधियों माता पिता मंगेतर पत्नी आदि से दूरभाष पर वार्तालाप करते रहे.

भोजन अवकाश के बाद पुनः पदाधिकारी गण 3:00 बजे प्रेक्षागृह में एकत्रित हुए जहां अतिथि व्याख्याता श्री आर.के. सिंह महोदय का व्याख्यान होने वाला था.
आज का विषय था "झारखंड और बिहार में खनिजों खान तथा इससे संबंधित कानून एवं नियमावली"
श्री सिंह 3:05 बजे आए और उनका व्याख्यान प्रारंभ हुआ.
उन्होंने झारखंड और  बिहार में पाए जाने वाले विविध खनिजो एवं उससे मिलने वाली रॉयल्टी से संबंधित जानकारी दी.
इसके बाद उन्होंने लघु एवं दीर्घ खनिज नियमावली के संदर्भ में बताया .
अंत में पदाधिकारी गण संबंधित विषय से तरह तरह के प्रश्न पूछ कर अपनी जिज्ञासाओं को शांत किया.
   इसके बाद पदाधिकारी एवं समय सारणी के अनुसार कंप्यूटर प्रशिक्षण पुस्तकालय अध्ययन
एवं विचार सभा के लिए सम्बंधित कक्षों की ओर प्रस्थान कर गए.
इस तरह गोधूलि बेला में चाय की चुस्कियां के साथ एक बार फिर पदाधिकारियों का

समागम छात्रावास प्रांगण के मैदान में इस संकल्प के साथ हुआ
"चल पड़ो तो गर्द बनकर आसमानों पर दिखो,
और कहीं बैठो तो मील का पत्थर दिखो,
सिर्फ देखने के लिए दिखना कोई देखना नहीं,
आदमी हो तुम अगर तो आदमी बनकर दिखो."

                                        दिवस पदाधिकारी
कक्ष संख्या-7
स्वर्ण-रेखा छात्रावास
श्री कृष्ण लोक प्रसाशन संस्थान
रांची



सोमवार, 11 मई 2020

दरभंगा डायरी-5 (जॉन नाजरत, लाल चौक और रीगल )


सदन झा मिथिला से हैंसूरत स्थित सेंटर फॉर सोशल स्टडीज में एसोसिएट प्रोफेसर हैं।‌ इन्होंने इतिहास की पढ़ाई की है। इनकी प्रकाशित पुस्तकों में 'हॉफ सेट चाय' (रजा पुस्तक माला और वाणी प्रकाशन), 'देवनागरी जगत की दॄश्य संस्कृति' (राजकमल प्रकाशन एवं रजा पुस्तक माला) तथा 'रेवरेंस रेसिस्टेंस एंड द पॉलिटिक्स ऑफ सिइंग द इंडियन नेशनल फ्लेग' (कैम्ब्रीज युनिवर्सिटी प्रेस) शामिल है। अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त इतिहासकार है. फिर भी हमारे मित्र हैं. रंग, इतिहास में रंग, और पलायन, इनके पसंदीदा विषय है. मिथिला और दरभंगा उन्हें बार-बार अपनी ओर बुलाता है ...
                  दरभंगा, लाल चौक, श्री कृष्ण सिंह, कामेश्वर महाराज ,जॉन नाजरत होता हुआ एक सूक्षम इतिहास जो उनकी पैनी नजर से नहीं बच सका . ये इतिहासकार की ही सधी हुई दृष्टि हो सकती है जो चीजों को इतने रोचक ढंग से प्रस्तुत कर सके.


मेरा दावा है की आपने इसे क्लिक किया तो पूरा देखे बिना नहीं रह सकते . 


शनिवार, 9 मई 2020

पटना कालेज डायरी-2

28 जनवरी 2020 

    'हिंदुस्तान' समाचार पत्र में इधर कुछ दिनों से संपादकीय के बाद वाले संपूर्ण पृष्ठ पर एक श्रृंखला प्रकाशित हो रही है, जो  रहता है. विषय है 'सन् 1990 में कश्मीर से पंडितों का पलायन'.
                 यह उन दिनों की बात है जब मैं पटना कॉलेज के मिंटो हॉस्टल में रहता था. स्कूल से सन् 1989 मैट्रिक की परीक्षा पास करने के बाद, कुछ ही दिन पहले पटना कॉलेज में दाखिला लिया था .


   आजादी का जबरदस्त एहसास हो रहा था. स्कूल की तरह न तो सुबह कोई प्रार्थना होती थी और न ही घंटी दर घंटी शिक्षक बदलते थे, यहां तो सब कुछ अपनी मर्जी पर था शिक्षक न बदल कर क्लासरूम ही बदल जाता था  मन हो तो जाओ नहीं तो कॉलेज के मैदान या उसके किनारे मुड़ेर पर बैठकर गप्पे लड़ाओ आती-जाती लड़कियों को देखो या फिर लाइब्रेरी में जाकर क्लासिक उपन्यास का आनंद लो. कुछ ना हो तो राधा-कृष्ण घाट पर बैठकर आती-जाती लहरों को निहारो बीच-बीच में झुंड के झुंड डुबकी  लगती गंगा-डॉल्फिन को देखते हुए सोचो कि उस पार तो हाजीपुर है, तो   फिर दिखाई क्यों नहीं देता. 



हॉस्टल के पेपर-मैगजीन स्टैंड पर अन्य पत्र-पत्रिकाओं के साथ 'हिंदुस्तान' समाचार पत्र भी लगा रहता था. हमारे सीनियरस ने ताकीद की थी कि भविष्य में अच्छी नौकरी के लिए प्रतियोगिता परीक्षा में सफल होना है तो समाचार पत्र के संपादकीय, 'इंडिया टुडे' और 'फ्रंटलाइन'  जैसी पत्रिकाओं को पढ़ो, अंग्रेजी भी मजबूत होगी. इस मशवरा का हम शिद्दत से पालन करने लगे. 
 उन दिनों घटने वाले महत्वपूर्ण सामाजिक आर्थिक राजनीतिक घटनाएं आज भी स्मृति पटल पर है. राजीव गांधी की हत्या, मंडल कमीशन आंदोलन, आडवाणी जी की रथ यात्रा और उसका रोका जाना, बाबरी मस्जिद प्रकरण, मुंबई के दंगे और उस पर बनी फिल्म मणिरत्नम की 'बंबई' फिर फिल्म पर विवाद और न जाने ऐसी कितनी ही घटनाएं.
       उन दिनों जब इतने बड़े पैमाने पर कश्मीरी पंडितों को अपना घर और अपनी जन्मभूमि छोड़ने पर मजबूर कर दिया गया इस बाबत 'हिंदुस्तान' में कोई समाचार प्रमुखता से क्यों नहीं छापा. हमारी जैसी एक पीढ़ी को इन तमाम सूचनाओं से वंचित रखने का दोषी कौन है? विधु विनोद चोपड़ा को भी घटना के 30 साल बाद इस पर फिल्म बनाने की क्यों सूझी ? मणिरत्नम जैसा साहस वे उस समय क्यों नहीं जुटा पाए, मेरे मन के किसी दूर कोने में बैठा 'मार्क्स'  मुझे धकिया रहा है. 
 तय है कि 'हिंदुस्तान'  जैसे समाचार पत्र में आज भी कुछ समाचार नहीं छप रहे हो और 30 साल बाद उस पर एक श्रृंखला प्रकाशित हो, मुझे इंतजार रहेगा उस श्रृंखला का.
 उन दिनों हॉस्टल के मैदान में कॉरिडोर और बाथरूम के पास कोई न कोई बी.बी.सी हिंदी सेवा पर शाम 7:30 बजे समाचार सुनता मिल जाता था अब तो बी.बी.सी की हिंदी सेवा भी बंद हो गई है